संतोष सोनी चिट्टू
रतनपुर, जिसे धर्म नगरी कहा जाता है, आज अपने ही अस्तित्व से जूझ रही है। ऐतिहासिक तालाबों की यह पवित्र भूमि अब बदबूदार और गंदगी से सराबोर होती जा रही है। कृष्णार्जुनी तालाब, जो कभी नगर की शोभा था, आज बोतलों में भरे गंदे पानी और सड़ांध का पर्याय बन चुका है। इस हालत के जिम्मेदार कौन हैं? स्थानीय नगरीय प्रशासन या लापरवाह ठेकेदार?
कुछ ही दिनों में कनागत (पितृपक्ष) प्रारंभ होने वाला है। श्रद्धालुजन अपने पूर्वजों को तर्पण देने के लिए इसी तालाब का जल उपयोग करेंगे। प्रश्न यह है – क्या हम अपने पितरों को ऐसा अपवित्र जल अर्पित करेंगे?
क्या धार्मिक क्रियाएं अब गंदगी के बीच होंगी?
अगर यही हालात रहे तो यह तालाब अगले कुछ वर्षों में इतिहास के पन्नों में दफ़्न हो जाएगा। इसके अस्तित्व को मिटने से कोई नहीं रोक सकेगा। यह केवल एक वार्ड की समस्या नहीं है, यह रतनपुर की अस्मिता और धार्मिक पवित्रता का सवाल है।
रतनपुर को ‘लहुरी काशी’ कहा गया है, और यहां मां महामाया मंदिर जैसा विश्वविख्यात शक्ति पीठ स्थित है। इस नगर की पहचान उसके ऐतिहासिक तालाबों की अटूट श्रृंखला से है – जिनका संरक्षण आज उपेक्षा की भेंट चढ़ गया है।
स्थानीय प्रशासन और नगर परिषद की चुप्पी सवालों के घेरे में है। क्या इन्हें यह दिखाई नहीं देता कि नगर की सांस्कृतिक आत्मा कराह रही है?
अब समय आ गया है कि जन-जागरण हो। यह सवाल सिर्फ पानी की गंदगी का नहीं है, यह सवाल है – हमारी संस्कृति, हमारे इतिहास, और हमारी आस्था का।
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