रतनपुर से संतोष सोनी"चिट्टू"
नगरपालिका की गलियों से लेकर सोशल मीडिया की दीवारों तक एक अजीब दृश्य सामने आ रहा है — पार्षद महिला चुनी गई है, लेकिन मैदान में दिखते हैं पार्षद पति और पार्षद प्रतिनिधि! असली पार्षद या तो चुप हैं, या फिर तस्वीरों से गायब। सवाल उठता है — महिला आरक्षण का असली फायदा किसे मिला?
सोशल मीडिया का ‘पार्षद शो’
आज हर मोहल्ले में वही दृश्य — उद्घाटन के फीतों को काटते ‘पति श्री’, अधिकारियों से मीटिंग करते ‘प्रतिनिधि बाबू’, और कैमरों के सामने पोज़ देते चेहरे, जिनका नाम बैलेट पेपर पर था ही नहीं।
फेसबुक हो या इंस्टाग्राम, हर जगह चमक रहे हैं वही लोग जो महिला सीट के जरिए सत्ता में आए — लेकिन महिला खुद कहीं नहीं दिखती!
कोई महिला पार्षद से बात करना चाहे तो जवाब मिलता है: “वो घर पर हैं, साहब ही सब देख रहे हैं!”
कुर्सी आरक्षित, लेकिन कब्ज़ा उन्हीं का!
यह नज़ारा सिर्फ एक वार्ड का नहीं — पूरे राज्य, देशभर के कई हिस्सों में यही खेल खेला जा रहा है। महिला सीट पर जीतती हैं बहुएं, बेटियां या पत्नियां, लेकिन निर्णय, फ़ाइल, ठेके और जनता से संवाद — सब पति या ‘पार्षद प्रतिनिधियों’ के ज़रिए होता है।
क्या यही है महिला सशक्तिकरण?
लोकतंत्र या परछाई-तंत्र?
समाजशास्त्रियों का कहना है कि यह स्थिति “पितृसत्ता का नया रूप” है। जहां महिलाओं को सामने रखकर सत्ता पर काबिज़ पुरुष उसी तरह राज कर रहे हैं, जैसे पहले करते थे — फर्क सिर्फ इतना है कि अब वो “प्रतिनिधि” कहलाते हैं।
जनता का सवाल
स्थानीय निवासी कमला देवी कहती हैं,
“हमने वोट महिला को दिया, लेकिन काम उनका पति कर रहा है! अगर महिला नहीं संभाल सकती तो क्यों खड़ी की गई?”
रिटायर टीचर यादव यादव जी सवाल करते हैं:
“कानून के हिसाब से प्रतिनिधि सिर्फ मदद कर सकता है, फैसले नहीं ले सकता — लेकिन यहां तो पूरा तंत्र ही उनके हवाले है!”
क्या कहता है नियम?
नगरपालिका अधिनियम के अनुसार, चुने गए जनप्रतिनिधि को ही निर्णय लेने और प्रतिनिधित्व करने का अधिकार है। प्रतिनिधि सिर्फ निजी सहायक की भूमिका निभा सकते हैं, सत्ता संचालन की नहीं।
अब सवाल जरूरी है:
क्या महिला आरक्षण सिर्फ नाम की शोभा बनकर रह गया है?
क्या “पार्षद पति” और “प्रतिनिधियों” की सत्ता पर सरकार को संज्ञान नहीं लेना चाहिए?
क्या असली पार्षदों की जवाबदेही तय की जाएगी?
जनता पूछ रही है — वोट हमने महिला को दिया, तो हुकूमत कौन चला रहा है?
यह मुद्दा सिर्फ नगरपालिका का नहीं — पूरे लोकतंत्र का है। अगर महिला सीटें भी पुरुषों के इशारे पर चलेंगी, तो आरक्षण की सार्थकता खत्म हो जाएगा।
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